यह सन्देश पूर्ण रूप से काल्पनिक है इसका किसी भी व्यक्ति अथवा जिव से किसी भी प्रकार का कोई भी संबंध नहीं है यदि किसी भी व्यक्ति अथवा जिव से किसी भी प्रकार का कोई भी संबंध होता है तो यह मात्र एक संयोग है जिसका हमें खेद है!
भेड़िया का बच्चा भेड़िया होता है, लोमड़ी का बच्चा लोमड़ी होता है, सियार का बच्चा सियार होता है, कुत्ता का बच्चा कुत्ता होता है, गदहे का बच्चा गदहा होता है, सूअर का बच्चा सूअर होता है, गीदड़ का बच्चा गीदड़ होता है, शेर का बच्चा शेर होता है किन्तु ईश्वर का बच्चा ईश्वर नहीं होता है ईश्वर के बच्चे को इंसान या मानव कहते है किन्तु कर्मों से ज्ञात हो जाता है की कौन किसकी संतान है और यदि इस धरती पर रहने वाले किसी भी व्यक्ति को यह सक है की वह परम-पिता परमेश्वर की संतान स्वयं ईश्वर नहीं है तो वह व्यक्ति ईश्वर के जैसा कार्य करना छोड़ दे मैं भी यह मान लूंगा वह व्यक्ति उस परम-पिता परमेश्वर की संतान स्वयं ईश्वर नहीं है!
मानव अथवा ईश्वर
कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में आयु एवं कर्म के अनुसार मूल रूप से चार युगों में निवास करते है पहला कल-युग मे लगभग 0-15 वर्ष की आयु बालक अथवा हनुमान जो कर्म से ब्राम्हण या शूद्र होते है, दूसरा द्वापर-युग में लगभग 15-30 वर्ष की आयु युवा अथवा कृष्ण/राधा जो कर्म से शूद्र या वैश्य होते है, तीसरा त्रेता-युग में लगभग 30-45 वर्ष की आयु वयस्क अथवा राम/सीता जो कर्म से वैश्य या क्षत्रिय होते है एवं चौथा सत्य-युग लगभग 45-60 वर्ष की आयु वृद्ध अथवा शिव/पार्वती जो कर्म से क्षत्रिय या ब्राम्हण होते है, 45 वर्ष की आयु हो जाने के बाद कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से परिपक्त हो जाता है अर्थात 45 वर्ष की आयु होने के बाद बौद्धिक विकास क्रम लगभग स्थिर हो जाता है, मानव तो एक ही है किन्तु आयु के अनुसार कर्म एवं युग बदल जाते है।
कल-युग
जब किसी व्यक्ति का जन्म होता है तो वह व्यक्ति अपने आयु के अनुसार सर्प्रथम कलयुग में निवास करता है तो वह बालक अवस्था में हनुमान(बंदर) का रूप होता है तथा बालक(हनुमान) को दादा(शिव) का अवतार भी कहते है और कोई भी व्यक्ति बालक(हनुमान) अवस्था में अपने माता-पिता(सीता-राम) की सेवा करता है अर्थात राम और सीता के लिए शूद्र अथवा दास या नौकर के रूप के कार्य करते है अब यदि कोई भी व्यक्ति यह कहता है की एक बालक को बंदर(हनुमान) नहीं कहते है और वह बालक(हनुमान) अपने माता-पिता(सीता-राम) की सेवा नहीं करते है या कोई बालक(हनुमान) अपने दादा(शिव) का रूप नहीं है तो संभव है यह सब एक मिथ्या भ्रम है।
द्वापर-युग
जब कोई व्यक्ति कलयुग से द्वापर युग में पहुँचता है अर्थात बाल अवस्था से युवा अवस्था में पहुँचता है तो कृष्ण के रूप में स्वयं विष्णु का अवतार होते है, कृष्ण का कार्य तो किसी से भी छिपा नहीं है, गोपियों के संग क्रीड़ा के अतिरिक्त और कोई कार्य शेष नहीं है किन्तु यदि कोई कंश(राजा अथवा चोर) जो उसके घर से दूध(घन) की चोरी(टैक्स या कर के रूप में) करता है तो ऐसे कंश(राजा अथवा चोर) का विनाश स्वयं कृष्ण ही कर सकते है यह किसी और के वश में नहीं है, यहाँ तक की यदि कोई द्रौपदी जो कृष्ण की सखा थी उसके ऊपर कोई आँख उठा कर देखे चाहे वह आँख उठाकर देखने वाला सैकड़ों की संख्या में ही क्यों नहीं हो उनका विनाश कृष्ण ही कर सकते है, कृष्ण का एक और भी कार्य था कृष्ण दूध के लिए गायों को चराने जंगल में लेकर जाते थे अर्थात अपने श्रम के बदले में दूध(धन) प्राप्त करते थे अर्थात एक युवा अपना श्रम के बदले दूध(धन) कमाते है या कुछ युवा अपना स्वयं का रोजगार करते है दोनों ही प्रस्थति में व्यवसाय ही करते है और व्यवसाय करने वाले को वैश्य कहते है।
त्रेता-युग
किसी भी अविवाहित व्यक्ति के लिए त्रेता-युग में पहुंचना असंभव है अतः जब कोई व्यक्ति द्वापर-युग से त्रेता-युग में पहुँचता है अर्थात युवा से वयस्क होता है अर्थात विवाह हो जाने के बाद राम के रूप में स्वयं विष्णु का अवतार होता है और यदि कोई सीता के ऊपर आँख उठाये तो रावण का वध स्वयं राम ही कर सकते है किन्तु सीता एवं राम स्वयं विष्णु तथा लक्ष्मी के अवतार ही नहीं बल्कि ब्रम्हा एवं सरस्वती के भी अवतार होते है, जब एक दंपत्ति अपने बच्चें को जन्म देते है तो पिता जो स्वयं ब्रम्हा के अवतार है अपने बच्चे का भविष्य निर्धारित करते है एवं एक माता जो सरस्वती का रूप है अपने बच्चे को बोलना, चलना, लिखना, पड़ना इत्यादि सिखाती है अर्थात प्रथम ज्ञान देती है और ज्ञान देने वाली को तो सरस्वती ही कहेगें, तथा पिता की योग्यता एवं सामर्थ ही बच्चें का भाग्य तय करता है तो भाग्य लिखने वाले को तो ब्रम्हा ही कहते है, तथा राम के रूप में अपने परिवार की सुरक्षा करना तथा पालन पोषण करना राम का कर्तव्य है और जो अपने घर का पालन कर्ता है उसे विष्णु का अवतार ही कहेगे तथा एक गृहणी का दाइत्व होता है धन की बचत करना अथवा धन को संग्रहित करना अर्थात धन को संग्रहित करने वाली को लक्ष्मी का रूप ही कहेगे तथा चुकी राम का दाइत्व अपने परिवार की हर प्रस्थति में सुरक्षा प्रदान करना है तो सुरक्षा करने वाले को क्षत्रिय की कहेगे अर्थात जब मानव वयस्क हो जाता है तो वह क्षत्रिय बन जाता है।
सत्य-युग
किसी भी अविवाहित व्यक्ति या जिसकी अपनी संतान नहीं हो उसके लिए सत्य-युग में पहुंचना असंभव है अतः जब कोई दंपत्ति जिनकी अपनी संतान हो और वह त्रेता-युग से सत्य-युग में पहुँचते है तो वह अपना सबकुछ अर्जित किया हुआ ज्ञान एवं धन-संपत्ति अपने बच्चों को दान कर देते है तथा दान करने वाले माता-पिता स्वयं शिव एवं पार्वती का रूप होते है तथा दानी से बड़ा कोई ज्ञानी नहीं है और जो अपना सबकुछ अपने बच्चों को दान करके स्वयं अपने बच्चों से भिक्षा मांगकर खाते है वह अपने ब्राम्हण कर्तव्य का पालन करते है क्योकि एक ब्राम्हण के पास धन-संपत्ति नहीं होता है एवं एक ब्राम्हण सदैव निर्धन अथवा दरिद्र होता है और यदि होता है तो वह अपना सब कुछ अपनी संतान को दान करके भिक्षुक बन जाते है एवं भिक्षा आवंटन करके अपना जीवन निर्वाह करते है, कोई भी संतान अपने माता-पिता के धन-संपत्ति को किसी छल, दल या बल से ग्रहण अथवा कब्ज़ा कर सकता है किन्तु ज्ञान तो एक योग्य संतान को ही प्राप्त होता है और एक ज्ञानी के लिए धन-संपत्ति का कोई मूल्य नहीं क्योकिं ज्ञान से स्वयं धन-संपत्ति अर्जित किया जा सकता है किन्तु धन-संपत्ति से स्वयं ज्ञान को अर्जित नहीं किया जा सकता है।